नामदेव न्यूज डॉट कॉम
अजमेर। अगर आप पाली जिले के देसूरी कस्बे में जाएं तो वहां छोटे से गांव आना में छीपा समाज के सांसारिक संत सुखजी बा की समाधि के दर्शन करना ना भूलें। सुखजी बा एक ऐसे सांसारिक संत थे जिन्होंने जन्मभूमि प्रेम और ईश्वरीय भक्ति का अतुलनीय संगम कर समाज को नई प्रेरणा दी।
सांसारिक संत सुखजी बा की इस पावन गाथा की शुरुआत होती है मेवाड़ और मारवाड़ की सरहद पर बसे देसूरी कस्बे के एक छोटे से गांव आना से।
अन्य परिवारों की तरह छीपा जाति के पूनमाजी का परिवार भी इसी गांव में रहता था। पूनमाजी की तीसरी संतान सुखजी बा का जन्म आज से 80-85 वर्ष पूर्व आना में हुआ था। कहते हैं कि पूत के पग की पालने में ही दिख जाते हैं। सुखजी के आभा मंडल का आभास पूनमाजी को सुखजी के बाल्यकाल में ही होने लग गया था।
शैशव काल में सुखजी की किलकारियां और अठखेलियां घर आंगन और पूनमाजी दंपती को मंत्रमुग्ध कर देती थीं।
समय का चक्र चलता रहा और पूनमाजी के सामने कुछ ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हुई कि उन्हें अपना गृह गांव छोड़कर सिरोही जिले के शिवगंज कस्बे के पास बडग़ांव में अपने भरे पूरे परिवार को लेकर आना पड़ा। बडग़ांव सुखजी बा का ननिहाल भी था।
सुखजी बा बड़े हुए और अपने पैतृक धंधे सिलाई के कार्य में पिता पूनमाजी का हाथ बंटाना शुरू कर दिया। मगर एक कसक थी जो सुखजी बा के मन को सताती रहती
थी। वह था पिता के साथ ननिहाल में रहना। हालांकि युवा सुखजी को पिता की जिम्मेदारियों और मजबूरियों का भी खयाल था, उनके पिता दामाद का फर्ज भी निभा रहे थे।
समय ने करवट ली और युवा सुखजी शादी के बंधन में बंध गए। मगर कसक अब भी दिल में हिलोरे मार रही थी क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनके पैतृक गांव से उनके पिता और दादा के नाम और यश को लोग भुला दें। आखिर एक रात उन्होंने फैसला लिया कि वह सुबह अपने पिता के सामने प्रस्ताव रखेंगे कि उन्हें उनकी जन्मभूमि बुला रही है।
अगली सुबह सुखजी बा ने पिता को अपने मन के विचारों से अवगत कराया और पिता ने सुखजी को सहमति दे दी।
अगली दिन भोर निकलते ही युवा सुखजी अपनी धर्मपत्नी के साथ अपने पैतृक गांव की ओर निकल पड़े। गौधूलि वेला में सुखजी ने जन्मभूमि पर कदम रखे और मातृभूमि की मिट्टी को सिर पर धारण किया। गांव के बाहर छीपा जाति के ही मां सती के मंदिर में दर्शन कर उन्होंने गांव में प्रवेश किया। प्रकृति भी मां-बेटे के अतुल्य मिलन को निहार रही थी।
अब सुखजी उस जमीन पर खड़े थे जहां सोनाणा खेतलवीर की आशीष थी। वे उस भूमि पर खड़े थे जो नाडोल की मां आशापुरी की रम्य स्थली थी। वे उस बलिदानी भूमि पर खड़े थे जहां पर कभी मेवाड़ के रणबांकुरों के कदम मातृभूमि की रक्षा के लिए पड़े थे और ऐसा ही कुछ भाव सुखजी के मन में भी जन्मभूमि को लेकर था। उस रात सुखजी गांव की भूमि के आंचल में इस कदर निद्रा में सोए जैसे बरसों बाद बेटा अपनी मां की गोद में सोया हो।
आत्मसम्मान की खातिर गांव तो लौट आये पर एक यक्ष प्रश्न उनके सामने खड़ा था कि गृह जीविका कैसे चलाएं। मगर जुझारू छवि के सुखजी ने जल्दी ही अपने पिता की तरह गांव के लोगों का दिल जीत लिया और गांव में सिलाई के कार्य में अपनी एक अलग पहचान बना ली।
शुरू से ही बहुत कम शब्दों में अपनी बात कहने वाले सुखजी बा धीरे धीरे अध्यात्म और भक्ति की और मुडऩे लगे। पर गृहस्थ के कर्तव्य और मजबूरिया भी उन्हें आड़े आ रही थी। वे जिंदगी के ऐसे मोड़ पर खड़े थे जहां उन्हें दो रास्ते दिख रहे थे। पर उन्होंने तीसरा रास्ता चुना और वह था गृहस्थ के साथ अध्यात्म। कुछ तो था उनमें मगर ज़माने और परिवार को कभी नजर नहीं आया।
समय के बढ़ते पहिये के साथ ही सुखजी बा का ईश्वर में विश्वास, तल्लीनता, धर्मपरायणता और भक्ति बढ़ती जा रही। गृहस्थ और अध्यात्म में उन्होंने वह संतुलन कर लिया था जहां अब उन्हें ईश्वर स्मरण में कोई समस्या नहीं आ रही थी।
इसी बीच गांव में धोलेरी वीरों के मंदिर की स्थापना होती है। तब से सुखजी बा का पूरा जीवन ही बदल जाता है। वीरों की भक्ति में बा इस तरह रम बस जाते हैं कि उन्हें पता भी नहीं रहता था की उनके सामने गृहस्थ की जिम्मेदारियां भी हैं। भगवान भी भक्तों के सेवक होते हैं। एक दिन धोलेरी वीरों की भी इच्छा हो जाती है कि सुखजी उनके सामने उनके पास ही रहे। वीरों का फरमान आता है कि -सुखजी थारी समाधि मारे सोमी ने मारे गने ईस लागी
गांव वालों और घर वालों ने इस बात को उस समय सुना अनसुना कर दिया मगर सुखजी बा को इस आदेश ने अंदर तक चेतन कर दिया था। अपने ईष्ट के आदेश की वे अवहेलना कदापि नहीं कर सकते थे।
एक दिन परिवार को बुलाकर सुखजी बा ने आदेश दिया कि उनके संसार से गमन और उनके ईष्ट के समक्ष जाने का समय आ रहा है, अत: उनकी समाधि की तैयारी की जाए।
आदेशनुसार समाधि की खुदाई शरू कर उसे निर्मित करवाया गया और जब सन्देश सुखजी बा तक पहुचाया गया कि समाधि तैयार है। उसी समय सुखजी ने बड़ी बहु को अपने कपड़े बदलने के लिए कहा और पुण्यात्मा ने अपने शरीर का त्याग कर दिया।
उन्हें हर्षपूर्ण माहौल में गाजे और बाजे के साथ समाधि दी गई। उनके मातृभूमि के प्रति प्यार और अपने ईष्ट के प्रति समर्पण का बखान आज भी उनकी समाधि कर रही है।
धरम धीज सुख देवतो, सुखजी बा रो थान।
आना थारी ओपमा, शरणागत रो मान।।
-प्रस्तुति : खेमराज नामा सोलंकी