चांगदेव महाराज सिद्धि के बल पर 1400 वर्ष जीए थे। उन्होंने मृत्यु को 42 बार लौटा दिया था। उन्हें प्रतिष्ठा का बड़ा मोह था। उन्होंने सन्त ज्ञानेश्वर की कीर्ति सुनी। उन्हें सर्वत्र सम्मान मिल रहा था । चांगदेव से यह सब सहा न गया। वे ज्ञानेश्वर से जलने लगे। चांगदेव को लगा, ज्ञानेश्वर जी को पत्र लिखूं । परन्तु उन्हें समझ नहीं रहा था कि पत्र का आरम्भ कैसे करें । क्योंकि, उस समय ज्ञानेश्वर जी की आयु केवल सोलह वर्ष थी । अत: उन्हें पूज्य कैसे लिखा जाए ? चिरंजीव कैसे लिखा जाए; क्योंकि वे महात्मा हैं । क्या लिखें, उन्हें कुछ समझ नहीं रहा था । इसलिए, कोरा ही पत्र भेज दिया ।
सन्तों की भाषा सन्त ही जानते हैं । मुक्ताबाई ने पत्र का उत्तर दिया – आपकी अवस्था 1400 वर्ष है । फिर भी, आप इस पत्र की भांति कोरे हैं। यह पत्र पढ़कर चांगदेव को लगा कि ऐसे ज्ञानी पुरुष से मिलना चाहिए। चांगदेव को सिद्धि का गर्व था। इसलिए वे बाघ पर बैठकर और उस बाघ को सर्प की लगाम लगाकर ज्ञानेश्वर जी से मिलने के लिए निकले। जब ज्ञानेश्वर जी को ज्ञात हुआ कि चांगदेव मिलने आ रहे हैं, तब उन्हें लगा कि आगे बढ़कर उनका स्वागत-सत्कार करना चाहिए। उस समय सन्त ज्ञानेश्वर जिस भीत पर बैठे थे, उस भीत को उन्होंने चलने का आदेश दिया। भीत चलने लगी। जब चांगदेव ने भीत को चलते देखा, तो उन्हें विश्वास हो गया कि ज्ञानेश्वर मुझसे श्रेष्ठ हैं क्योंकि, उनका निर्जीव वस्तुओं पर भी अधिकार है। मेरा तो केवल प्राणियों पर अधिकार है। उसी पल चांगदेव ज्ञानेश्वर जी के शिष्य बन गए।
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