संत नामदेव की पत्नी का नाम राजाई था और परीसा भागवत की पत्नी का नाम था कमला। कमला और राजाई शादी के पहले सहेलियां थीं। दोनों की शादी हुई तो संयोग से पड़ोस में ही आ गईं। राजाई नामदेव जी जैसे महापुरुष की पत्नी थी और कमला परीसा भागवत जैसे देवी के उपासक की पत्नी थी।
कमला के पति ने देवी की उपासना करके देवी से पारस मांग लिया और वे बड़े धन-धान्य से सम्पन्न होकर रहने लगे। नामदेवजी दर्जी का काम करते थे। वे कीर्तन-भजन करने जाते और पांच-पन्द्रह दिन के बाद लौटते। अपना दर्जी का काम करके आटे-दाल के पैसे इक_े करते और फिर चले जाते। वे अत्यन्त दरिद्रता में जीते थे लेकिन अंदर से बड़े सन्तुष्ट और खुश रहते थे।
एक दिन नामदेव जी कहीं कीर्तन-भजन के लिए गए तो कमला ने राजाई से कहा कि ‘तुम्हारी गरीबी देखकर मुझे तरस आता है। मेरा पति बाहर गया, तुम यह पारस ले लो, थोड़ा सोना बना लो और अपने घर को धन धान्य से सम्पन्न कर लो।’
राजाई ने पारस लिया और थोड़ा सा सोना बना लिया। संतुष्ट व्यक्ति की मांग भी आवश्यकता की पूर्ति भर होती है। ऐसा नहीं कि दस टन सोना बना ले, एक दो पाव बनाया बस।
नामदेव जी ने आकर देखा तो घर में सीधा-सामान, धन-धान्य…. भरा-भरा घर दीखा। शक्कर, गुड़, घी आदि जो भी घर की आवश्यकता थी वह सारा सामान आ गया था।
नामदेव जी ने कहा “इतना सारा वैभव कहां से आया ?” राजाई ने सारी बात बता दी कि ” परीसा भागवत ने देवी की उपासना की और देवी ने पारस दिया। वे लोग खूब सोना बनाते हैं और इसीलिए दान भी करते हैं, मजे से रहते हैं। हम दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। मेरा दु:ख देखकर उसको दया आ गयी।”
नामदेव जी ने कहा “मुझे तुझ पर दया आती है कि सारे पारसों को पारस ईश्वर है, उसको छोड़कर तू एक पत्थर लेकर पगली हो रही है। चल मेरे साथ, उठा ये सामान।”
नामदेव जी बाहर गरीबों में सब सामान बांटकर आ गए। घर जैसे पहले था ऐसे ही खाली-खट कर दिया।
नामदेव जी ने पूछा “वह पत्थर कहां है ? लाओ।” राजाई पारस ले आईं। नामदेव जी ने उसे ले जाकर नदी में फेंक दिया और कहने लगे ‘मेरे पांडुरंग ! हमें अपनी माया से बचा। इस धन दौलत, सुख सुविधा से बचा, नहीं हम तेरा, अंतरात्मा का सुख भूल जाएंगे।’ – ऐसा कहते कहते वे ध्यान मग्न हो गए।
स्त्रियों के पेट में ऐसी बड़ी बात ज्यादा देर नहीं ठहरती। राजाई ने अपनी सहेली से कहा कि ऐसा-ऐसा हो गया। अब सहेली कमला तो रोने लगी। इतने में परीसा भागवत आया, पूछा “कमला ! क्या हुआ, क्या हुआ ?”
वह बोली “तुम मुझे मार डालोगे ऐसी बात है।” आखिर जब परीसा भागवत को पूरी बात पता चली तो वह क्रोध से लाल-पीला हो गया। बोला “कहां है नामदेव, कहां है ? कहां गया मेरा पारस, कहां गया ?” और इधर नामदेव तो नदी के किनारे ध्यानमग्न थे।
परीसा भागवत वहां पहुंचा “ओ ! ओ भगत जी ! मेरा पारस दीजिए।”
नामदेव “पारस तो मैंने डाल दिया उधर (नदी में)। परम पारस तो है अपना आत्मा। यह पारस पत्थर क्या करता है ? मोह, माया, भूत-पिशाच की योनि में भटकाता है। पारस-पारस क्या करते हो भाई ! बैठो और पांडुरंग का दर्शन करो।”
“मुझे कोई दर्शन-वर्शन नहीं करना।”
“हरि ॐ बोलो, आत्मविश्रान्ति पाओ।”
“नहीं चाहिए आत्मविश्रान्ति, आप ही पाओ। मेरे जीवन में दरिद्रता है, ऐसा है वैसा है… मुझे मेरा पारस दीजिए।”
“पारस तो नदी में डाल दिया।”
“नदी में डाल दिया ! नहीं, मुझे मेरा वह पारस दीजिए।”
“अब क्या करना है….. सच्चा पारस तो तुम्हारी आत्मा ही है। अरे, सत्य आत्मा है….”
“मैं आपको हाथ जोड़ता हूं मेरे बाप ! मुझे मेरा पारस दो…. पारस दो…..।”
“पारस मेरे पास नही है, वह तो मैंने नदी में डाल दिया।”
“कितने वर्ष साधना की, मंत्र-अनुष्ठान किए, सिद्धि आई, अंत में सिद्धिस्वरूपा देवी ने मुझे वह पारस दिया है। देवी का दिया हुआ वह मेरा पारस….”
नामदेव जी तो संत थे, उनको तो वह मार नहीं सकता था। अपने-आपको ही कूटने लगा।
नामदेव जी बोले “अरे क्या पत्थर के टुकड़े के लिए आत्मा का अपमान करता है।”
‘जय पांडुरंगा !’ कहकर नामदेव जी ने नदी में डुबकी लगाई और कई पत्थर ला के रख दिए उसके सामने।
“आपका पारस आप ही देख लो।”
देखा तो सभी पारस !
“इतने पारस कैसे !”
“अरे, कैसे-कैसे क्या करते हो, जैसे भी आये हों ! आप ले लो अपना पारस !”
“ये कैसे पारस, इतने सारे !”
नामदेवजी बोले: “अरे, आप अपना पारस पहचान लो।”
अब सब पारस एक जैसे। उसने एक पारस उठाकर लोहे से छुआया तो वह सोना बन गया। लोहे की जिस वस्तु को लगाए वह सोना!
“ओ मेरी पांडुरंग माऊली ! क्या आपकी लीला है ! हम समझ रहे थे कि नामदेव दरिद्र हैं। बाप रे ! हम ही दरिद्र हैं। नामदेव तो कितने वैभवशाली हैं। नहीं चाहिए पारस, नहीं चाहिए, फेंक दो। ओ पांडुरंग !”
परीसा भागवत ने सारे पारस नदी में फेंक दिए और खुद भी परमात्म-पारस में ध्यानमग्न हो गए।
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