कैसे हुई शुरुआत?
बीते कुछ सालों की तुलना में, इस त्योहार में अपने रिश्तेदारों, परिजनों और दोस्तों के साथ आने वाले पुरुषों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हुई है. पुरुष श्रद्धालुओं की ये संख्या 10 हजार का आंकड़ा पार कर चुकी है.
इस आयोजन की मान्यताओं और दंत कहानियों के मुताबिक, इस परंपरा की शुरूआत लड़कों के एक समूह द्वारा की गई थी, जो गायों को पालते थे और लड़कियों के रूप में तैयार होते थे. वो अपनी देवी को फूल और ‘कोटन’ (नारियल से बनने वाली डिश) चढ़ाते थे. फिर एक दिन देवी एक लड़के के सामने प्रकट हुईं. इसके बाद, देवी की पूजा करने के लिए महिलाओं के रूप में पुरुषों के कपड़े पहनने की रस्म शुरू हुई.
लोकप्रिय परंपरा
इस मंदिर में लगे एक पत्थर को देवता माना जाता है. लोगों का कहना है कि ये पत्थर सालों से आकार में बढ़ रहा है. जब ये अनुष्ठान बेहद लोकप्रिय हो गया है, तो यह विभिन्न धर्मों के लोगों को आकर्षित करता है और उनमें से बड़ी संख्या लोग केरल के बाहर से आते हैं. इस अनुष्ठान में भाग लेने के लिए सबसे शुभ समय 2 बजे से 5 बजे के बीच है. पारंपरिक साड़ी में सजे-धजे पुरुषों को शाम के समय दीपक ले जाते हुए भारी संख्या में देखा जा सकता है.
पुरुषों को महिलाओं या लड़कियों के रूप में तैयार होने के लिए दीपक ले जाना पड़ता है, जो किराए पर उपलब्ध हैं, उन्हें अपनी पोशाक लेनी पड़ती है. अगर किसी को मदद की जरूरत है, तो उसकी मदद के लिए यहां ब्यूटीशियन हैं. हर साल की तरह इस बार भी जब ये त्योहार संपन्न हुआ तो हजारों लोग खुशी-खुशी घर लौट गए.