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पुलिस की समझदानी बड़ी या अखबारों की समझदारी ?

सन्तोष खाचरियावास @ अजमेर

करोली की घटना के बाद सरकार छाछ को भी फूंक-फूंककर पी रही है। इसके लिए पुलिस ‘स्ट्रॉ’ का काम कर रही है। हर तरफ नजर रखी जा रही है, इसी नजर में धूल झोंककर कोई पुलिस लाइन क्षेत्र में एक पोल पर फ्लैक्स लगा गया। ऐन रामनवमी की अलसुबह लोगों की नजर उस पर पड़ी और बात पुलिस तक पहुंची। आलाअफसरों ने फ्लैक्स पर लिखी इबारत को धार्मिक भावना को भड़काने वाला माना और तुरन्त फ्लैक्स जब्त कर अज्ञात के खिलाफ धार्मिक वैमनस्यता बढ़ाने का प्रयास करने के आरोप में मामला दर्ज कर लिया।
पुलिस की इस मुस्तैदी पर पीठ थपथपाई जा सकती है। दिनभर रामनवमी पर रामजन्मोत्सव की धूम रही। शोभायात्रा भी शांतिपूर्ण तरीके से निकली। शहर में कहीं से भी कोई अप्रिय खबर नहीं आई।
 लेकिन शाम होते-होते खुद पुलिस की समझ ही बोझिल हो गई।
पुलिस अधीक्षक कार्यालय से जो प्रेस नोट अखबारों को जारी हुआ उसमें हूबहू वही इबारत लिख दी गई जो उस फ्लैक्स पर लिखी थी। प्रेस नोट पढ़कर पत्रकार चौंक उठे।
जिस इबारत को पुलिस ने विवादास्पद माना, खुद अपने प्रेस नोट में उसका हूबहू जिक्र कर पुलिस ने अपनी समझदानी चौपट कर दी।
जनाब, फ्लैक्स तो दस-बीस लोगों ने ही पढ़ा होगा लेकिन वही इबारत अगर पुलिस के हवाले से अखबारों की लाखों प्रतियों में प्रकाशित हो जाती तो क्या होता? क्या फ्लैक्स लगाने वाले की मंशा पुलिस की ‘समझदारी’ से पूरी नहीं हो जाती ??
खैर, किसी भी अखबार ने वह विवादास्पद वाक्य पब्लिश नहीं किए,  यही फर्क है पुलिस की समझदानी और पत्रकार की समझदारी में।
उम्मीद है, आइंदा कोई प्रेस नोट जारी होगा तो पहले उसे समझ के तराजू में जरूर तोला जाएगा।

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