आज जयंती पर विशेष
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अजमेर। महाराणा प्रताप जीवनपर्यन्त मुगलों से लड़ते रहे और कभी हार नही मानी। महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के कुम्भलगढ़ में हुआ था।
हिंदू कैलेंडर (पन्चांग) के मुताबिक़ प्रताप का जन्म हिंदुओं में शुभ माने-जाने वाले गुरुपुष्प नक्षत्र में ज्येष्ठ महीने की तृतीया तिथि को हुआ था। यह तिथि आज 25 मई को है। लिहाजा लॉक डाउन के कारण लोग घरों में ही माटी के सपूत को नमन करेंगे।
प्रताप के पिता का नाम महाराणा उदय सिंह द्वितीय और माता का नाम रानी जीवंत कंवर [जयवंता बाई] था। महाराणा प्रताप अपने पच्चीस भाइयो में सबसे बड़े थे इसलिए उनको मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाया गया।
महाराणा प्रताप को बचपन में ही ढाल तलवार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा क्योंकि उनके पिता उन्हें अपनी तरह कुशल योद्धा बनाना चाहते थे। बालक प्रताप ने कम उम्र में ही अपने अदम्य साहस का परिचय दे दिया था। धीरे धीरे समय बीतता गया। दिन महीनों में और महीने सालो में परिवर्तित होते गये। इसी बीच प्रताप अस्त्र शस्त्र चलाने में निपुण हो गये।
महाराणा प्रताप के काल में दिल्ली पर अकबर का शासन था और अकबर की निति हिन्दू राजाओ की शक्ति का उपयोग कर दूसरे हिन्दू राजा को अपने नियन्त्रण में लेना था। 1567 में जब राजकुमार प्रताप को उत्तराधिकारी बनाया गया उस वक्त उनकी उम्र केवल 27 वर्ष थी और मुगल सेनाओ ने चित्तोडग़ढ़ को चारो और से घेर लिया था। उस वक्त महाराणा उदय सिंह मुगलों से भिडऩे के बजाय चित्तोडग़ढ़ छोडकर परिवार सहित गोगुन्दा चले गये। वयस्क प्रताप सिंह फिर से चित्तोडग़ढ़ जाकर मुगलों से सामना करना चाहते थे लेकिन उनके परिवार ने चित्तोडग़ढ़ जाने से मना कर दिया।
गोगुन्दा में रहते हुए महाराणा उदय सिंह और उसके विश्वासपात्रो ने मेवाड़ की अस्थायी सरकार बना ली थी। 1572 में महाराणा उदय सिंह अपने पुत्र प्रताप को महाराणा का खिताब देकर मृत्यु को प्राप्त हो गये। वैसे महाराणा उदय सिंह अपने अंतिम समय में अपनी प्रिय पत्नी रानी भटियानी के प्रभाव में आकर उनके पुत्र जगमाल को राजगद्दी पर बिठाना चाहते थे।
महाराणा उदय सिंह के म्रत्यु के बाद जब उनके शव को श्मशान तक ले जाया जा रहा था तब प्रताप भी उस शवयात्रा में शामिल हुए थे जबकि परम्परा के अनुसार राजतिलक के वक्त राजकुमार प्रताप को पिता के शव के साथ जाने की अनुमति नहीं होती थी बल्कि राजतिलक की तैयारी में लगना पड़ता था। प्रताप ने राजपरिवार की इस परिपाटी को तोडा था और इसके बाद ये परम्परा कभी नहीं निभायी गयी।
प्रताप ने अपने पिता की अंतिम इच्छा के अनुसार उसके सौतेले भाई जगमाल को राजा बनाने का निश्चय किया लेकिन मेवाड़ के विश्वासपात्र चुंडावत राजपूतो ने जगमाल के सिंहासन पर बैठने को विनाशकारी मानते हुए जगमाल को राजगद्दी छोडऩे को बाध्य किया। जगमाल सिंहासन को छोडऩे का इच्छुक नहीं था लेकिन उसने बदला लेने के लिए अजमेर जाकर अकबर की सेना में शामिल हो गया और उसके बदले उसको जहाजपुर की जागीर मिल गयी। इस दौरान राजकुमार प्रताप को मेवाड़ के 54 वे शाषक के साथ महाराणा का खिताब मिला।
1572 में प्रताप सिंह मेवाड़ के महाराणा बन गये थे लेकिन वो पिछले पांच सालो से चित्तोडग़ढ़ कभी नहीं गये थे। उनका जन्म स्थान और चित्तोडग़ढ़ का किला महाराणा प्रताप को पुकार रहा था। महाराणा प्रताप को अपने पिता के चित्तोडग़ढ़ को पुन: देख बिना मौत हो जाने का बहुत अफ़सोस था। अकबर ने चित्तोडग़ढ़ पर तो कब्जा कर लिया था लेकिन मेवाड़ का राज अभी भी उससे दूर था। अकबर ने कई बार अपने हिंदुस्तान के जहापनाह बनने की चाह में कई दूतो को महाराणा प्रताप से संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए भेजा लेकिन हर बार राणा प्रताप ने शांति संधि करने की बात कही लेकिन मेवाड़ की प्रभुता उनके पास ही रहेगी। 1573 में संधि प्रस्तावों को ठुकराने के बाद अकबर ने मेवाड़ का बाहरी राज्यों से सम्पर्क तोड़ दिया और मेवाड़ के सहयोगी दलों को अलग थलग कर दिया जिसमें से कुछ महाराणा प्रताप के मित्र और रिश्तेदार थे। अकबर ने चित्तोडग़ढ़ के सभी लोगो को प्रताप की सहायता करने से मना कर दिया। महाराणा प्रताप ने मुगलों से सामना करने के लिए अपनी सेना को सचेत कर दिया। प्रताप ने अपनी सेना को मेवाड़ की राजधानी कुम्भलगढ़ भेज दिया। उसने अपने सैनिको को अरावली की पहाडियों में चले जाने की आज्ञा दी और दुश्मन के लिए पीछे कोई सेना नही छोड़ी। महाराणा युद्ध उस पहाड़ी इलाके में लडऩा चाहते थे जिसके बारे में मेवाड़ सेना आदि थी लेकिन मुगल सेना को बिलकुल भी अनुभव नही था। अपने राजा की बात मानते हुए उनकी सारी सेना पहाडिय़ो की ओर कूच कर गयी। अरावली पहाडियों पर रहने वाले भील भी राणा प्रताप की सेना के साथ हो गये। महाराणा प्रताप खुद जंगलो में रहे ताकि वो जान सके कि स्वंत्रतता और अधिकारों को पाने के लिए कितना दर्द सहना पड़ता है। उन्होंने पत्तल में भोजन किया , जमीन पर सोये और दाढी नहीं बनाई। दरिद्रता के दौर में वो कच्ची झोपडिय़ो में रहते थे जो मिटटी और बांस की बनी होती थी।
शांति प्रयत्नों की विफलता के कारण 18 जून 1576 को महाराण प्रताप के 20000 और मुगल सेना के 80000 सैनिको के बीच हल्दीघाटी का युद्ध शुरू हो गया। उस समय मुगल सेना की कमान अकबर के सेनापति मान सिंह ने संभाली थी। महाराणा प्रताप की सेना मुगलों की सेना को खदेड़ रही थी। महाराणा प्रताप की सेना में झालामान, डोडिया भील ,रामदास राठोड़ और हाकिम खा सूर जैसे शूरवीर थे। मुगल सेना के पास कई तोंपे और विशाल सेना थी लेकिन प्रताप की सेना के पास केवल हिम्मत और साहसी जांबाजों की सेना के अलावा कुछ भी नही था। महाराणा प्रताप की सेना तो पराजित नही हुयी लेकिन महाराणा प्रताप स्वयं मुगल सैनिकों से घिर गये थे।
महाराणा प्रताप के बारे में कहा जाता है कि उनके भाले का वजन 80 किलो और कवच का वजन 72 किलो हुआ करता था और इस तरह उनके भाले ,कवच , ढाल और तलवारों को मिलाकर कुल 200 किलो का वजन साथ लेकर युद्ध करते थे। ऐसा कहा जाता है इस वक्त राणा प्रताप के हमशक्ल भाई शक्ति सिंह ने प्रताप की मदद की। एक दूसरी दुर्घटना में महाराणा प्रताप का प्रिय और वफादार घोड़ा चेतक प्रताप की जान बचाते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया।
इतिहासकार कर्नल टॉड ने हल्दी घाटी के युद्व को मेवाड़ की ‘‘थर्मोपल्ली‘‘ की संज्ञा दी है। इस युद्व में महाराणा प्रताप का स्वामी भक्त एवं प्रिय घोडा चेतक मारा गया। हल्दी घाटी के युद्व में पराजय के बावजूद महाराणा प्रताप के यश और कीर्ति में कोई कमी नहीं आई। बल्कि हल्दी घाटी को इस युद्व ने समूचे भारत के स्वाधीनता प्रेमियों के लिए पूजनीय क्षेत्र बना दिया। वहीं इस युद्व ने महाराणा प्रताप को जननायक के रूप में सम्पूर्ण भारत वर्ष में प्रसिद्व कर दिया। हल्दी घाटी के युद्व में पराजय के बाद राणा प्रताप के जीवन में जिस संकट काल का प्रारंभ हुआ वह लगभग दस वर्ष (1576-1586) तक चला और बीतते समय के साथ वह अधिक विषम होता चला गया।
इस दौरान गोगुन्दा से दक्षिण में स्थित राजा गांव में राणा के परिवार को घास की रोटी भी नसीब नहीं हुई और एक बार वन विलाव उनके भूख से बिलखते बच्चों के हाथ से घास की रोटी भी छीन कर ले गया था। सम्पूर्ण मेवाड प्रान्त पर अपना आधिपत्य जमाने और प्रताप को पकडऩे के उद्देश्य से अकबर ने अक्टूबर 1576 को पुन: मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी, परन्तु वह प्रताप को पकडनें में सफल नहीं हो सका।
अकबर ने 15 अक्टूबर 1577 को अपने शिपहसालार शाहबाज खां को कुम्भलमेर के गढ को फतेह करने के लिए भेजा। उसने जून 1578 में किला तो फतेह कर लिया, किन्तु वह भी महाराणा प्रताप को नहीं पकड़ सका। इस संकट के समय में महाराणा प्रताप के मंत्री भामाशाह और उनके भाई ताराचंद ने मुल्क मालवे से दण्ड के 25 लाख रूपए तथा 20 हजार स्वर्ण मुद्राएं उनकों भेंट कर अपनी स्वामी भक्ति का परिचय दिया। इस धन से उन्होंने पुन: सेना जुटाकर ‘दिवेर’ को जीत लिया और ‘‘चांवड‘‘ पंहुचकर अपना सुरिक्षत मुकाम बनाया।
मेवाड़ के बचे भाग पर फिर से महाराणा का ध्वज लहराने लगा। बांसवाडा और डूंगरपुर के शासकों को भी पराजित कर प्रताप ने अपने अधीन कर लिया। यह समाचार पाकर अकबर तिलमिला उठा और उसने पुन: शाहबाज खां को 15 दिसंबर 1578 को महाराणा को कुचलने के लिए शाही लवाजमें के साथ यह आदेश देते हुए भेजा कि यदि तुम प्रताप का दमन किए बिना वापिस लौटे, तो तुम्हारे सिर कलम कर दिए जाएंगे। शाही लवाजमें और कठोर आदेश के बावजूद शाहबाज खां प्रताप को नहीं पकड़ सका।
तीसरी बार बादशाह ने 9 नवम्बर 1579 को शाहबाज खां को प्रताप को पकडने के लिए मेवाड़ भेजा, जिसमें उसे सफलता नहीं मिली। 1580 में बादशाह अकबर ने अब्दुर्रहीम खानखाना को अजमेर का सूबेदार नियुक्त किया और उसे मेवाड़ विजय का अभियान सौंपा। अब्दुर्रहीम ने अपने परिवार को शेरगढ़ में छोडक़र राणा पर चढ़ाई कर दी। कुंवर अमरसिंह ने खानखाना का ध्यान बढ़ाने के लिए शेरगढ़ के पास आक्रमण किया और खानखाना की बेगमों सहित उसके परिवार को बंदी बना लिया। जब महाराणा प्रताप को इस बात का पता चला, तो उन्हें बहुत आत्मग्लानि हुई और उन्होंने कुंवर को खानखाना के परिवार को ससम्मान पंहुचाने की आज्ञा दी। इससे प्रमाणित होता है कि प्रताप अपने शत्रु की स्त्रियों को भी कितना सम्मान देते थे। अकबर ने प्रताप को समाप्त कर उसके साम्राज्य पर आधिपत्य करने के उद्देश्य से विभिन्न सेनापतियों को समय-समय पर मेवाड भेजा, किन्तु 12 वर्ष तक उसे इस उद्देश्य में सफलता नहीं मिली।
अकबर के आक्रमक अभियानों की समाप्ति के बाद मेवाड़ में नए युग का सूत्रपात हुआ। महाराणा प्रताप ने एक वर्ष में ही चितौडग़ढ़ और जहाजपुर को छोडक़र सम्पूर्ण मेवाड़ पर सत्ता कायम कर ली। उन्होंने चांवड को अपनी राजधानी बनाकर सारे राज्य में शांति व्यवस्था कायम की, जिससे खेत फिर से लहलहाने लगे, उद्योग -व्यवसायों में प्रगति हुई और उजड़े नगर-कस्बे पुन: आबाद हुए और मेवाड़ फिर से चमन बन गया। महाराणा प्रताप कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ पीडितों और विद्वानों का आदर भी करते थे। उनकी प्रेरणा से ही मथुरा के चक्रपाणी मिश्र ने ‘विश्व वल्लभ’ नामक स्थापत्य तथा ‘मुहूर्त माला’ नामक ज्योतिष ग्रंथ की रचना की। चांवड मे चावंड माता के मंदिर का निर्माण भी राणा प्रताप ने ही करवाया था। उनके दरबार में कई विख्यात चारण कवि भी थे, जिनमें कविवर माला सांदू और दुरासा आढा ने उनकी प्रंशंसा में उच्च कोटि की काव्य रचना की। सादडी में जैन साधू हेमरत्न सूरि ने ‘‘ गोरा बादल-पद्मिनी चौपाई‘‘ की रचना भी प्रताप के समय ही की थी। महाराणा प्रताप ने चावंड को चित्रकला का केन्द्र बनाकर नई चित्र शैली ‘‘ मेवाड शैली ‘‘ का प्रारम्भ करवाया। महाराणा प्रताप की 11 रानिया, 17 पुत्र और 5 पुत्रिया थी। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपने पहले पुत्र अमर सिंह को सिंहासन पर बिठाया। महाराणा प्रताप कभी चित्तोडग़ढ़ वापस नहीं जा सके लेकिन वो उसे पान के लिए जीवनपर्यन्त प्रयास करते रहे। जनवरी 1597 को मेवाड़ के महान नायक महाराणा प्रताप शिकार के दौरान बुरी तरह घायल हो गये और उनकी 56 वर्ष की आयु में मौत हो गयी। उन्होंने मृत्यु से पहले अमर सिंह को मुगलों के सामने कभी समर्पण ना करने का वचन लिया और चित्तोडग़ढ़ पर फिर विजय प्राप्त करने को कहा। ऐसा कहा जाता है कि राना प्रताप की मौत पर अकबर खूब रोया था कि एक बहादुर वीर इस दुनिया से अलविदा हो गया। उनके शव को 29 जनवरी 1597 को चावंड लाया गया। इस तरह महाराणा प्रताप इतिहास के पन्नो में अपनी बहादुरी और जनप्रियता के लिए अमर हो गये। महाराणा प्रताप अपनी मृत्यु तक घास के बिछौने पर सोते थे, क्योंकि चितौडगढ़़ को मुक्त करने की उनकी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हुई थी ।