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हाइकोर्ट ने तीन तलाक को बताया मुस्लिम महिलाओं के साथ क्रूरता

add kamal

 

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इलाहाबाद। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के साथ क्रूरता है। यह समाज और देश के हित में नहीं है। हालांकि मुस्लिम समुदाय के सभी वर्ग तीन तलाक को मान्यता नहीं देते किन्तु एक बड़ा मुस्लिम समाज तीन तलाक स्वीकार कर रहा है। जो न केवल संविधान के समानता एवं भेदभाव विहीन समाज के मूल अधिकारों के विपरीत है वरन् भारत को एक राष्ट्र होने में बाधक है।

कोर्ट ने कहा है कि पवित्र कुरान में पति-पत्नी के बीच सुलह के सारे प्रयास विफल होने की दशा में ही तलाक या खुला का नियम है किन्तु कुछ लोग कुरान की मनमानी व्याख्या करते हैं। पर्सनल लॉ संविधान द्वारा प्रदत्त वैयक्तिक अधिकारों के ऊपर नहीं हो सकता।

हालांकि शादी व तलाक की वैधता पर कोर्ट ने कोई फैसला नहीं दिया किन्तु 23 साल की लड़की से 53 साल की उम्र में शादी की इच्छा रखने वाले पुरुष द्वारा दो बच्चों की मां को तलाक देने को सही नहीं माना। कोर्ट ने कहा कि दूसरी शादी के लिए पहली पत्नी को तीन तलाक देकर हाईकोर्ट से सुरक्षा की गुहार नहीं की जा सकती। कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से इन्कार करते हुए नवविवाहित पति-पत्नी की सुरक्षा की मांग में दाखिल याचिका खारिज कर दी है। यह आदेश न्यायमूर्ति सुनीत कुमार ने श्रीमती हिना व अन्य की याचिका पर दिया है।

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कोर्ट ने कहा कि कुरान में पुरुष को पत्नी के तलाक से रोका गया है। यदि पत्नी के व्यवहार या बुरे चरित्र के कारण वैवाहिक जीवन दुःखमय हो गया तो पुरुष विवाह विच्छेद कर सकता है। इस्लाम में इसे सही नहीं माना गया है किन्तु बिना ठोस कारण के तलाक को धार्मिक या या कानून की निगाह में सही नहीं ठहराया जा सकता।

कई इस्लामिक देशों में पुरूष को कोर्ट में तलाक के कारण बताने पड़ते हैं तभी तलाक मिल पाता है। इस्लाम में अपरिहार्य परिस्थितियों में ही तलाक की अनुमति दी गयी है। वह भी सुलह के सारे प्रयास खत्म होने के बाद। ऐसे में तीन तलाक को सही नहीं माना जा सकता। यह महिला के साथ भेदभाव है जिसकी गारंटी संविधान में दी गयी है।

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कोर्ट ने कहा कि पंथ निरपेक्ष देशों में संविधान के तहत मार्डन सामाजिक बदलाव लाते हैं। भारत में भारी संख्या में मुसलमान रहते हैं। मुस्लिम औरतों को पुरानी रीति-रिवाजों व सामाजिक वाले वैयक्तिक कानून के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।

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