ये है जुड़वों का गांव, रहते है 150 से ज्यादा जुड़वां
कोहिन्ही। केरल के मलप्पुरम जिले में स्थित कोडिन्ही गांव को जुड़वों के गांव के नाम से जाना जाता है। यहां पर वर्तमान में करीब 150 जुड़वा जोड़े रहते हैं। इनमे नवजात शिशु से लेकर 65 साल के बुजुर्ग तक शामिल हैं। विश्व स्तर पर हर 1000 बच्चों पर 4 जुड़वां पैदा होते हैं। एशिया में तो यह औसत 4 से भी कम है। लेकिन कोडिन्ही में हर 1000 बच्चों पर 45 बच्चे जुड़वा पैदा होते हैं। हालांकि यह औसत पुरे विश्व में दूसरे नंबर पर, लेकिन एशिया में पहले नंबर पर आता है। विश्व में पहला नंबर नाइज़ीरिआ के इग्बो-ओरा को प्राप्त है। कोडिन्ही गांव ुस्लिम बहुल है जिसकी आबादी करीब 2000 है। इस गांव में घर, स्कूल, बाज़ार हर जगह हमशक्ल नजऱ आते हैं।
यहां मुफ्त मिलता है दूध दही
अहमदाबाद। यहां के लोग कभी दूध या उससे बनने वाली चीजों को बेचते नहीं है बल्कि उन लोगों को मुफ्त में दे देते हैं जिनके पास गायें या भैंसे नहीं हैं। धोकड़ा गुजरात में बसा ऐसा ही अनोखा गांव है। आज जब लोग किसी को पानी तक नहीं पूछते हैं, ऐसे में श्वेत क्रांति के लिए प्रसिद्ध यह गांव दूध दही ऐसे ही बांट देता है। यहां पर रहने वाले एक पुजारी बताते हैं कि उन्हें महीने में करीब 7,500 रुपए का दूध गांव से मुफ्त में मिलता है।
इस गांव में आज भी राम राज्य
अहमदनगर। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के नेवासा तालुके में शनि शिंग्नापुर भारत का एक ऐसा गांव है जहां लोगों के घर में एक भी दरवाजा नहीं है। यहां तक कि दुकानों में भी दरवाजे नहीं हैं। कोई भी अपनी बहुमूल्य चीजों को ताले-चाबी में बंद करके नहीं रखता फिर भी गांव में आज तक कभी कोई चोरी नहीं हुई।
इस गांव में हर कोई बोलता है संस्कृत
बेंगलुररू। कर्नाटक के शिमोगा शहर के कुछ ही दूरी पर एक गांव ऐसा भी है जहां ग्रामवासी केवल संस्कृत में ही बात करते हैं। शिमोगा शहर से लगभग दस किलोमीटर दूर मुत्तुरु अपनी विशिष्ठ पहचान को लेकर चर्चा में हैं। तुंग नदी के किनारे बसे इस गांव में संस्कृत प्राचीन काल से ही बोली जाती है।
करीब पांच सौ परिवारों वाले इस गांव में प्रवेश करते ही “भवत: नाम किम?” (आपका नाम क्या है?) पूछा जाता है “हैलो” के स्थान पर “हरि ओम” और “कैसे हो” के स्थान पर “कथा अस्ति?” आदि के द्वारा ही वार्तालाप होता हैं। बच्चे, बूढ़े, युवा और महिलाएं- सभी बहुत ही सहज रूप से संस्कृत में बात करते हैं। भाषा पर किसी धर्म और समाज का अधिकार नहीं होता तभी तो गांव में रहने वाले मुस्लिम परिवार के लोग भी संस्कृत उतनी ही सहजता से बोलते हैं जैसे दूसरे लोग।
एक गांव जो हर साल कमाता है 1 अरब रुपए
इलाहाबाद। यूपी का एक गांव अपनी एक खासियत की वजह से पूरे देश में पहचाना जाता है। अमरोहा जनपद के जोया विकास खंड क्षेत्र का ये छोटा सा गांव है सलारपुर खालसा। इस गांव का नाम पूरे देश में छाया है और इसका कारण है टमाटर। गांव में टमाटर की खेती बड़े पैमाने पर होती है।
देश का शायद ही कोई कोना होगा, जहां पर सलारपुर खालसा की जमीन पर पैदा हुआ टमाटर न जाता हो। गांव में 17 साल से चल रही टमाटर की खेती का क्षेत्रफल फैलता ही जा रहा है और अब मुरादाबाद मंडल में सबसे ज्यादा टमाटर की खेती इसी गांव में होती है। कारोबार की बात करें, तो पांच माह में यहां 60 करोड़ का कारोबार होता है।
जनपद में 1200 हेक्टेयर में होने वाली टमाटर की खेती में इन चार गांवों में ही अकेले 1000 हेक्टेयर में खेती होती है। जिसके चलते यह गांव मुरादाबाद मंडल में भी अव्वल नंबर पर है। जबकि सूबे में भी टमाटर खेती में आगे रहने वाली जगहों में इस गांव का नाम शामिल है।
इस साल की बात करें तो प्रदेश में डेढ़ क्विंटल टमाटर बीज की बिक्री हुई थी। जिसमें अकेले सलारपुर खालसा में ही 80 किलो बीज बिका था।
यह गांव है भगवान का बगीचा
शिलॉन्ग। सफाई के मामले में हमारे अधिकांश गांवो, कस्बों और शहरों की हालत बहुत खराब है वही यह एक सुखद आश्चर्य की बात है कि एशिया का सबसे साफ़ सुथरा गांव भी हमारे देश भारत में है। यह है मेघालय का मावल्यान्नॉंग गांव जिसे कि भगवान का अपना बगीचा के नाम से भी जाना जाता है। सफाई के साथ साथ यह गांव शिक्षा में भी अवल्ल है। यहां की साक्षरता दर 100 फीसदी है, यानी यहां के सभी लोग पढ़े-लिखे हैं। इतना ही नहीं, इस गांव में ज्यादातर लोग सिर्फ अंग्रेजी में ही बात करते हैं। खासी हिल्स डिस्ट्रिक्ट का यह गांव मेघालय के शिलॉंन्ग और भारत-बांग्लादेश बॉर्डर से 90 किलोमीटर दूर है। साल 2014 की गणना के अनुसार, यहां 95 परिवार रहते हैं। यहां सुपारी की खेती आजीविका का मुख्य साधन है। यहां लोग घर से निकलने वाले कूड़े-कचरे को बांस से बने डस्टबिन में जमा करते हैं और उसे एक जगह इक_ा कर खेती के लिए खाद की तरह इस्तेमाल करते हैं।
श्राप के कारण ये गांव 170 सालों से है वीरान
जैसलमेर। राजस्थान के जैसलमेर जिले का कुलधरा गांव पिछले 170 सालों से वीरान पड़ा है। कुलधरा गांव के हज़ारों लोग एक ही रात में इस गांव को खाली कर के चले गए थे और जाते जाते श्राप दे गए थे कि यहां फिर कभी कोई नहीं बस पाएगा। तब से गांव वीरान पड़ा है।
कहा जाता है कि यह गांव रूहानी ताकतों के कब्जे में है। कभी हंसता खेलता यह गांव आज एक खंडहर में तब्दील हो चुका है, साथ ही टूरिस्ट प्लेस में बदल चुका है। कुलधरा गांव घूमने आने वालों के मुताबिक यहां रहने वाले पालीवाल ब्राह्मणों की आहट आज भी सुनाई देती है। उन्हें वहां हरपल ऐसा अनुभव होता है कि कोई आसपास चल रहा है। बाजार के चहल-पहल की आवाजें आती हैं, महिलाओं के बात करने उनकी चूडिय़ों और पायलों की आवाज हमेशा ही वहां के माहौल को भयावह बनाते हैं। प्रशासन ने इस गांव की सरहद पर एक फाटक बनवा दिया है जिसके पार दिन में तो सैलानी घूमने आते रहते हैं लेकिन रात में इस फाटक को पार करने की कोई हिम्मत नहीं करता हैं।
इस गांव में कुछ भी छुआ तो लगता है 1000 रुपए जुर्माना
कुल्लू। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के अति दुर्गम इलाके में स्थित है मलाणा गांव। इसे आप भारत का सबसे रहस्यमयी गांव कह सकते हंै। यहाँ के निवासी खुद को सिकंदर के सैनिकों का वंशज मानते हैं। यहां पर भारतीय कानून नहीं चलते हैं। यहां की अपनी संसद है जो सारे फैसले करती है। मलाणा भारत का इकलौता गांव है जहां मुगल सम्राट अकबर की पूजा की जाती है।
मलाणा गांव में यदि किसी बाहरी व्यक्ति ने किसी चीज को छुआ तो जुर्माना देना पड़ता है। जुर्माने की रकम 1000 रुपए से 2500 रुपए तक कुछ भी हो सकती है।
अपनी विचित्र परंपराओं लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण पहचाने जाने वाले इस गांव में हर साल हजारों की संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं। इनके रुकने की व्यवस्था इस गांव में नहीं है। पर्यटक गांव के बाहर टेंट में रहते हैं। अगर इस गांव में किसी ने मकान-दुकान या यहां के किसी निवासी को छू (टच) लिया तो यहां के लोग उस व्यक्ति से एक हजार रुपए वसूलते हैं।
ऐसा नहीं हैं कि यहां के निवासी यहां आने वाले लोगों से जबरिया वसूली करते हों। मलाणा के लोगों ने यहां हर जगह नोटिस बोर्ड लगा रखे हैं। इन नोटिस बोर्ड पर साफ-साफ चेतावनी लिखी गई है। गांव के लोग बाहरी लोगों पर हर पल निगाह रखते हैं, जरा सी लापरवाही भी यहां आने वालों पर भारी पड़ जाती है।
मलाणा गांव में कुछ दुकानें भी हैं। इन पर गांव के लोग तो आसानी से सामान खरीद सकते हैं, पर बाहरी लोग दुकान में न जा सकते हैं न दुकान छू सकते हैं। बाहरी ग्राहकों के दुकान के बाहर से ही खड़े होकर सामान मांगना पड़ता है। दुकानदार पहले सामान की कीमत बताते हैं। रुपए दुकान के बाहर रखवाने के बाद सामन भी बाहर रख देते हैं।
यह गांव कहलाता है ‘मिनी लंदन’
रांची। झारखंड की राजधानी रांची से उत्तर-पश्चिम में करीब 65 किलोमीटर दूर स्थित एक कस्बा गांव है मैक्लुस्कीगंज। एंग्लो इंडियन समुदाय के लिए बसाई गई दुनिया की इस बस्ती को मिनी लंदन भी कहा जाता है।
घनघोर जंगलों और आदिवासी गांवों के बीच सन् 1911 में कोलोनाइजेशन सोसायटी ऑफ इंडिया ने मैकलुस्कीगंज को बसाया था। 1910 के दशक में रातू महाराज से ली गई लीज की 10 हजार एकड़ जमीन पर अर्नेस्ट टिमोथी मैकलुस्की नामक एक एंग्लो इंडियन व्यवसायी ने इसकी नींव रखी थी। चामा, रामदागादो, केदल, दुली, कोनका, मायापुर, महुलिया, हेसाल और लपरा जैसे गांवों वाला यह इलाका 165 बंगलों के साथ पहचाना जाता था जिसमें कभी एंग्लो-इंडियन लोग आबाद थे। पश्चिमी संस्कृति के रंग-ढंग और गोरे लोगों की उपस्थिति इसे लंदन का सा रूप देती थी तो इसे लोग मिनी लंदन कहने लगे।
मैकलुस्की के पिता आइरिश थे और रेल की नौकरी में रहे थे। नौकरी के दौरान बनारस के एक ब्राह्मण परिवार की लड़की से उन्हें प्यार हो गया। समाज के विरोध के बावजूद दोनों ने शादी की। ऐसे में मैकलुस्की बचपन से ही एंग्लो-इंडियन समुदाय की छटपटाहट देखते आए थे। अपने समुदाय के लिए कुछ कर गुजरने का सपना शुरू से उनके मन में था। वे बंगाल विधान परिषद के मेंबर बने और कोलकाता में रियल एस्टेट का कारोबार भी खूब ढंग से चलाया। कोलकाता में प्रॉपर्टी डीलिंग के पेशे से जुड़ा टिमोथी जब इस इलाके में आया तो यहां की आबोहवा ने उसे मोहित कर लिया। यहां के गांवों में आम, जामुन, करंज, सेमल, कदंब, महुआ, भेलवा, सखुआ और परास के मंजर, फूल या फलों से सदाबहार पेड़ उसे कुछ इस कदर भाए कि उसने भारत के एंग्लो-इंडियन परिवारों के लिए एक अपना ही चमन विकसित करने की ठान ली।
जब साइमन कमीशन की रिपोर्ट आई जिसमें एंग्लो-इंडियन समुदाय के प्रति अंग्रेज सरकार ने किसी भी तरह की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया था। पूरे एंग्लो-इंडियन समुदाय के सामने खड़े इस संकट को देखते हुए मैकलुस्की ने तय किया कि वह समुदाय के लिए एक गांव इसी भारत में बनाएंगे। बाद ऐसा ही हुआ। कोलकाता और अन्य दूसरे महानगरों में रहने वाले कई धनी एंग्लो-इंडियन परिवारों ने मैकलुस्कीगंज में डेरा जमाया, जमीनें खरीदीं और आकर्षक बंगले बनवाकर यहीं रहने लगे।
इंसानों की तरह मैकलुस्कीगंज को भी कभी बुरे दिन देखने पड़े थे। यहां के लोग उस दौर को भी याद करते हैं जब एक के बाद एक एंग्लो-इंडियन परिवार ये जगह छोड़ते चले गए। कुछ 20-25 परिवार रह गए, बाकी ने शहर खाली कर दिया। इसके बाद तो खाली बंगलों के कारण भूतों का शहर बन गया था मैकलुस्कीगंज।