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परिवर्तन के लिए धरती की अग्नि साधना 

 
  न्यूज नजर : आषाढ़ मास में सूर्य की प्रचंड गर्मी धरती को इतना तपा देतीं हैं और संदेश देने लग जाती है कि अब प्रकृति परिवर्तन की ओर जा रही है और हर परिवर्तन एक नयी शुरुआत करता है। परिवर्तन के रूप में धरती को वर्षा रूपी जल मिलता है। धरती के किस भाग को कितना जल मिलेगा इसका फैसला ना तो सूर्य करता है और ना ही धरती। बादलों के रथ पर सवार हो कर चलती हुई हवाएं इस वर्षा का वितरण करतीं हैं। बादल वाद होता है और हवाएं उसका प्रतिवाद बन कर संघर्ष पर ऊतारू हो जातीं हैं और संवाद के रूप में जल धरती पर बरसता है। बस परिवर्तन की इतनी सी कहानी होतीं हैं। हवाएं किसी स्थान पर मेहरबान हो तो किसी का भाग्य संवर जाता है और प्रतिकूल हो तो भाग्य डूब जाता है। यह परिवर्तन केवल प्रकृति ही तय करतीं हैं।
भंवरलाल, ज्योतिषाचार्य एवं संस्थापक, जोगणिया धाम पुष्कर

 

            परिस्थितियों विशेष में हुए परिवर्तन का फल भी कुछ ऐसा ही होता है लेकिन इसे मानव अपने अनुसार तय करता है कि कहा पर क्या मेहरबानिया बरसायी जाय ताकि आने वाले कल की इमारत उसी की नीति के अनुसार खड़ी हो। दोनों ही स्थितियों में परिवर्तन तो होता ही है पर फल अलग अलग हो जातें हैं। दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति को आन्तरिक ऊर्जा शक्ति को बढा ही पढता है और उसके लिए ध्यान चिंतन एकाग्रता के साथ नव ऊर्जा का संचय करता है वही गुप्त शक्ति के नवरात्रा बन जाते हैं।
           धरती जब अग्नि साधना करती है तब ही वर्षा रूपी तीर्थ प्रकट होते हैं और यही वर्षा रूपी रूपी तीर्थ जगत का कल्याण करते हैं। बिना भेद बुद्धि रखे वर्षा रूपी तीर्थ सभी जीवो को जल का सेवन करा कर उनके जीवन की यात्रा को पूरी करते हैं। यह काल बल की ही प्रधानता होती है कि सूर्य सदा पृथ्वी को अग्नि साधना में नहीं लगा सकता है। अपनी धुरी पर भ्रमण करता हुआ सूर्य तथा सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती हुई पृथ्वी पर स्थान बल भारी पड जाता है और फलस्वरूप वर्षा रूपी तीर्थ के जल से ऋतुएं श्रृंगार कर पृथ्वी को हरा भरा रखती है और उसे वनस्पति फलो ओर फसलों से परिपूर्ण रखतीं हैं।
          काश यह धरती अग्नि साधना नहीं करतीं तो जगत में जल नही होता और जीवन भी नहीं होता। प्रकृति ने इस स्थिति को संतुलित कर पृथ्वी को चलायमान कर दिन व रात तथा ऋतु परिवर्तन जेसी स्थितियों को उत्पन्न किया। इस ऋतु परिवर्तन के कारण ही धरती को पवित्र अग्नि साधना करनी पड़ती है। अपनी धुरी पर भ्रमण करता हुआ सूर्य जब वृष राशि और मिथुन राशि में भ्रमण करता है तो पृथ्वी को अपनी गर्म किरणों से तपा देता है और लगता है कि सूरज आसमान से आग बरसा रहा है। पृथ्वी पर जन जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है और सर्वत्र जल के स्त्रोत सूख जाते हैं हरियाली खत्म हो जाती है। धरती आग की तरह तपने लगतीं हैं जैसे कोई संत अपने चारो तरफ आग जला कर आसमान के नीचे दिन भर साधना कर रहा है।
      पृथ्वी की यह पवित्र अग्नि साधना व्यर्थ नहीं जाती वरन पृथ्वी पर मौजूद जल के समुद्र भी इस से भांप बन कर प्रचंड जल राशि के मेघ बन कर बरसते हैं पूरी धरती को जल से स्नान करा देते हैं। धरती जल से परिपूर्ण हो जीव व जगत का जमीनी तीर्थ बन जाती है और उस मे नहा धोकर लोग अपने पसीने का ही केवल शुद्धिकरण नहीं करते वरन जल को पी कर लोग शरीर में व्यापत हर रोगों व गर्मी को दूर कर करते हैं। धरती अपने हर उत्पादनों को देने वालीं बन जाता है।
               संतजन कहते हैं कि हे मानव आस्था और श्रद्धा का उपासक जब कोई कड़ी साधना व्रत अदृश्य शक्ति के अदृश्य देव के लिए करता है तो वह इन साधना से अपनी आंतरिक ऊर्जा को बढा कर शकून पाता है और लगता की परमात्मा ने रहमत की वर्षा कर दी है और मन खुश हो कर उत्सव मनाता है।
         इसलिए हे मानव सूर्य की गर्मी जो आग के गोलों जेसी धरती पर पड रही है और धरती को पवित्र अग्नि साधना करा रही। यह सब व्यर्थ नहीं जायेगी और वर्षा रूपी महान् तीर्थ स्थापित करेंगी यह प्रकृति की एक व्यवस्था है जो मानव को जप तप व्रत के लिए प्रोत्साहित कर उनकी आंतरिक ऊर्जा को बढाती है और हर चुनौतियों से मुकाबला करा देती है।