न्यूज नजर : ठंड को चीरती हुई बसंत ऋतु यौवन को बढ़ा कर फाल्गुन के चंग की थाप पर नाच गाकर रंगों में रंग कर ठंड को और पीछे धकेलती हुई प्रकृति की गर्म ऊर्जा आगाज़ करते हुए संदेश दे रही है कि अब मेरे शरीर की गर्मी बढ चुकी है और मेरा संतुलन बिगड़ ना जाए इसलिए अब मैं शरीर में ठंडी ऊर्जा को बढा रही हूं। मेरे शरीर का अग्नि तत्व बढ चुका है इसका जल तत्व से संतुलन करने के लिए मेरे रहने और भोजन करने के अंदाज को बदलकर मैं प्रकृति के रंगों में ही रंगी रहूंगी।
वास्तव में प्रकृति अपना संतुलन बनाए रखने के लिये ऋतुओं को बदलती रहती और उन से प्रकट होने वाली ऊर्जा से जीव जगत व वनस्पति को पोषित करती हैं। ठंड की ऋतु में शरीर की अंदर की ऊर्जा को बढा कर व्यक्ति संतुलन बनाता और उसी के अनुसार पहनने ओढ़ने व खाने पीने के तौर तरीकों को अपनाता है और इस कारण शरीर का अग्नि तत्व बढ जाता है। गर्मी की ऋतु में व्यक्ति को व्यक्ति को शरीर मे ठंडी ऊर्जा को बढाना आवश्यक हो जाता हैक्यो कि प्रकृति का अग्नि तत्व बढ जाता है।
” शरीर में जल तत्व को बढ़ा अग्नि तत्व को कम कर ऋतु के अनुसार शरीर को ढालने का पर्व ही शीतला है। ”
चैत्र मास में बढ़ती गर्मी के साथ ही अग्नि और जल तत्व का संतुलन करने के लिए आदि ऋषियों ने आरोग्य प्रदान करने वाले सूर्य की आधार तिथि सप्तमी के दिन नदी ओर जल स्त्रोतों के पास जाकर शीतल जल से स्नान कर ओर सूर्य को शक्ति मान तथा उस दिन ठंडे भोजन को ही ग्रहण किया ओर शरीर की ऊर्जा को संतुलित करने का प्रयास किया।
कालचक्र इस ऊर्जा संतुलन के पर्व को आगे बढाता रहा और यह पर्व शीतला सप्तमी के रूप में स्थापित हुआ।विचारधारा मे मतान्तर से कुछ ऋषियों ने शक्ति का आठवां दिन मानते हुए शीतला की पूजा अष्टमी को की। यह सब मान्यताएं धार्मिक आस्था के रूप में बदलती गयी फिर भी ऊर्जा संतुलन का सिद्धांत यहीं रहा।
धार्मिक मान्यताओं में इस दैवी को चेचक, टाइफायड, मोतीझरा की देवी माना गया तथा इस दिन ठंडे भोजन से देवी की पूजा उपासना की जाती है तथा जल व दही से इसे स्नान कराया जाता है। देवी की प्रसन्नता के लिए दही ज्वार की राबडी नैवेद्य तथा एक दिन पूर्व बने भोजन का भोग लगाया जाता है।
विज्ञान भले ही इन मान्यताओं को ना माने लेकिन सदियों से आज तक यह पर्व मनाया जाता है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव यह निश्चित है कि प्रकृति का ऊर्जा क्षेत्र बदल रहा है और गर्म हो रहा हैं। इसलिए शरीर के ऊर्जा चक्र को संतुलित करनें का यह पर्व शीतला है। भले ही सप्तमी को मान या अष्टमी को। प्रकृति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है और फिर तेरी मान्यता भी तो तेरी अपनी है और मुहूर्त भी तेरे अपने बनाये हुए हैं। इनका निर्माण प्रकृति ने नही किया। इसलिए हे मानव प्रकृति ने तेरी रचना की है वो मुहूर्त पर नहीं वास्तविकता पर आधारित होती हैं बाकि सब धार्मिक मान्यताएं हैं।