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अर्थव्यवस्था में समृद्धि का पर्व है दीपावली

 

न्यूज नजर :  मानव के जन्म के बाद शनै: शनै: जैसे-जैसे उसमें बुद्धि का विकास होने लगा तो वो समझने लग गया कि दिन के समय उसे सब कुछ साफ़ साफ़ दिखाई देता था और रात होते ही उसे चारों ओर अंधेरे ही नजर आते थे।

भंवरलाल
ज्योतिषाचार्य एवं संस्थापक,
जोगणिया धाम पुष्कर

अंधेरी रात में स्थिति और भी विकट हो जाती थी। दिन में सूरज के प्रकाश ओर रात्रि के समय चन्द्रमा की कलाओं की रोशनी उसे धीरे-धीरे समझ आने लगी। पत्थर से पत्थर फेंकने पर और वृक्ष की शाखा से शाखा हवा में रगड़ खाने पर आग निकलते हुके देखा तो उसे आग का पैदा होना दिखाई दिया।बस यहीं से उसे अज्ञान के अंधेरे में उजाले करने का ज्ञान हो गया।

रात के अंधेरों में रोशनी करना तथा सर्दी और स्वयं की सुरक्षा के लिए गुफा व पत्थरो ओर चट्टानों की आढ मे रहना तथा वहां उजाला करना सीख गया ओर इसी ज्ञान के विकास मे वो मिट्टी के दिये मे तेल डालकर उससे रोशनी करना सीख गया। अंधेरों से ऊजाले मे रहने का यह ज्ञान उसकी प्रारंभिक व अघोषित दीपावली बन गयी।


विकास की इस धारा ओर आवश्यकता को पूरी करने के लिए के लिए आविष्कार करता हुआ वह खेती करना सीख गया। यही खेती उसकी जीवन का आधार बन वर्तमान रूप में आ गयीं। अति प्राचीन काल में खेती बाड़ी ही जीविका का मुख्य आधार रही ।फ़सल कटने के बाद सारे धान्यों से घर भर जाता था तथा वस्तु विनियम व मुद्रा विनियम के माध्यम से सारी आर्थिक व्यवस्था हल हो जाती थीं। इस खुशी में लोग पशुओं को भी श्रम से मुक्त कर देते थे तथा अपने घरों की गोबर व मिट्टी से लिपाई कर रंगोली बनाते तथा खेती की शक्ति देवी को नवीन अन्न व अन्न से बनाये पकवानों से पूजकर “दिवारी नृत्य’ कर खुशियाँ मनाते थे।
जब मुद्रा विनियम ने जन्म ले लिया तब कृषि उत्पादों के मूल्यो को नये मिट्टी के घडो मे भर कर शकुन के लिए इन्हें भी श्रम के मूल्यो के रूप मे भूमि की शक्ति देवी के रूप में पूजने लग गया।
यही सब परम्पराऐ सर्वत्र बड़ी संस्कृति के रूप में लक्ष्मी व दीपावली के रूप में मनायी जानें लगी। खेत से मिट्टी लाकर लक्ष्मी के रूप मे पूजा जाता था जिस पर नयी फ़सल के पकवानों को अर्पण किया जाता था। यहीं खेतों की मिट्टी आगे जा कर लक्ष्मी जी की मूर्ति के रूप मे पूजी जाने लगी।
अति प्राचीन संस्कृति मे प्रकृति की शक्तियो को ही पूजा जाता था। जहां परमात्मा का असली स्वरूप यही था। उसके बाद सभ्यता ओर संस्कृति ने कई नवीन मान्यताओ को स्थापित कर दिया ओर धर्म दर्शन चिंतन ने समाज व खेती बाड़ी ओर अर्थव्यवस्था में अदृश्य शक्ति के अदृश्य परमात्मा के ज्ञान का प्रवेश करा इसे धार्मिक जामा पहना दिया तथा अंधेरों में उजाले व खेती बाड़ी के धन प्राप्ति का यह ज्ञान ही दीपावली पर्व बन कर समाज़ मे व्यापत हो गया।
त्यौहारों की संस्कृति प्रारंभ में लघु संस्कृति के स्तर पर शुरू होतीं हैं और सभ्यता के विकास की कहानी के साथ साथ वो एक वृहत् संस्कृति के रूप मे मनायी जानें लग जाती है। ओर शनैः शनैः यह बड़े त्योहारों का रूप धारण कर लेती है।  जनसंख्या का विस्तार गांव से शहरों का निर्माण कर रोजगार को खेती बाड़ी तक ही नहीं रखता ओर नवीन धंधे बड जाते हैं और लधुसंस्कृति त्योहार का रूप धारण कर लेती हैं। उसको मानने के तोर तरीके बदल जातें है और कई नईं बातें ओर धारणाएं इन त्योहारों के साथ जुड़ जातीं हैं।
धन तेरस रूप चतुर्दशी ओर दीपावली भी लघु संस्कृति का विस्तार हैं और कई नईं बातें ओर धारणा विश्वास आस्था व उपासना इसके साथ जुड़ गयीं। कृषि उत्पादों व उनसे प्राप्त धन धन तेरस के रूप में तथा उस नकदी से अपनी शरीर की आवश्यकता के वस्त्र आभूषण व सोंदर्य से अपने शरीर को निखारने की रूप चतुर्दशी तथा उसके बाद खूब प्रकाश के दिये जला कर अंधेरो मे ऊजाले कर अपनी खुशी का इजहार करना दीपावली पर्व बन गया।हर बार ऐसा ही हुआ ओर इन सबका स्वरूप दीपावली के रूप मे मनाया जानें लग गया।
संत जन कहतें है कि हे मानव विकास की कहानी की जमीनी हकीकत यहीं हैं कि वो नीचे से ऊपर की ओर बढ कर अपनें स्वरुप का विस्तार कर लेतीं हैं। दीपावली भी लधु संस्कृति से वृहद संस्कृति बन गयीं और समय समय पर शुभ घटनाक्रम को दीपावली पर्व की तरह मनाया गया ओर वे मान्यताऐ भी इसके साथ जुड़ कर आवश्यकता ओर श्रद्धा की दीपावली बन गयी।

इसलिए हे मानव दीपावली उस ज्ञान का पर्व है जहां मानव अज्ञान के अंधेरों में कर्म के दीपक जला कर अपने आप को ओर समाज को सुखी और समृद्ध बनाता है। आर्थिक क्रिया से अर्थव्यवस्था को मजबूत कर बाधा रुपी दानवों पर विजय पाता है और चहुमुखी विकास की ओर बढता है तथा ख़ुशी के दीपक जलाता है।

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