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गुरु पूर्णिमा : आस्था और श्रद्धा का पर्व 27 जुलाई को

न्यूज नजर : इस संसार में व्यक्ति एक मांस के लोथडे की तरह जन्म लेता है और उसे जहां भी छोड दिया

भंवरलाल
ज्योतिषाचार्य एवं संस्थापक,
जोगणिया धाम पुष्कर

जाए उसी के गुण धर्म सीख लेता है, उसी के अनुसार उसका विकास होता है। जिसे आदर्श मानकर जो सीखा जाता है या प्रत्यक्ष रूप से जो सिखाता है उसे गुरू के नाम से जाना जाता है।

यह सिखाने वाला बड़ी नम्रता और प्रेम से सिखाता है, एक नहीं बार बार सिखाता है। सिखाते समय ऐसा लगता है कि उसके ऊपर प्रेम की लाली लगी हुई है, लेकिन वह बडी कठोरता के साथ सिखाता है और उसकी पालना करवाता है। यह सिखाने वाला व्यक्ति ही गुरू कहलाता है।

वेद व्यासजी के जन्मदिन को गुरू पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। एक मछुआरे की लड़की थी, जिसमें मच्छलियों की दुर्गंध आती थी इसलिए उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया। पाराशर ॠषि ने अपनी योग क्रिया से उसकी गंध को दूर कर उसमें कस्तूरी की गंध बना दी। इस गंध से वह कस्तूरी की तरह सुगंधित हो गई। पाराशर ॠषि के संयोग से उसे एक पुत्र संतान की उत्पत्ति हुई। उसका नाम वेद व्यास रखा गया।

 

दिव्य ॠषि की दिव्य संतान का जन्म आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन हुआ। जन्मते ही वेद व्यास एक दम बड़े हो गए तथा माता से जाने की आज्ञा मांगी। माता ने कहा बेटा इतनी जल्दी क्या है? तब वेद व्यास बोले- हे माता! अभी संसार के कई कार्य मुझे करने हैं अतः मुझे आज्ञा दीजिए। मां की आज्ञा पाकर वेद व्यास निकल पड़े।

वेदों पर पुनर्विचार कर वेदों को पुनः संहिता बद्ध किया तथा पांचवें वेद के रूप में उन्होंने महाभारत ग्रंथ लिखा। वेद व्यास चूंकि सबके गुरु थे अतः इनके जन्म दिवस आषाढ़ी पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है।

गुरु पूर्णिमा के दिन आदर पूर्वक अपने गुरूजनों का पूजन करना चाहिए। यदि गुरु नहीं भी बना पाए तो भगवान शिव का पूजन करना चाहिए क्योंकि जिसका कोई गुरु नहीं होता शिव को ही जगत गुरू के रूप में पूजा जा सकता है।

आपने जिसको भी गुरु बना लिया या बनाने जा रहे हैं तो आपके मन में उसके प्रति अपार श्रद्धा होनी चाहिए। गुरु छोटा, बड़ा, समर्थ, असमर्थ कुछ नहीं होता। गुरु तो सर्वत्र गुरु होता है। गुरु नाम में भगवान शिव विराजमान रहते हैं।

गुरु कैसा भी हो वह ईश्वरीय कृपा के कारण समर्थ रहता होता है। उपासना, ज्ञान, साधना, बड़े आश्रम वाला, अपार शिष्यों वाला आदि आधारों पर गुरूओं की शक्ति में भेद नहीं करना चाहिए।

शिष्य मन, वाणी और आत्मा से एक होने चाहिए अर्थात् दोनों में एकात्मा की भावना होनी चाहिए। गुरु के आदेश निर्देशों की पालना होनी चाहिए। सदा सबके कल्याण के लिए कार्य करना चाहिए। गुरु द्वारा दिए गए मंत्र का गुरु के आदेशानुसार जाप करना चाहिए।

गुरु उपदेश, गुरू मंत्र, गुरु का आशीर्वाद तो भव से पार करता है। किसी भी कार्य के प्रारंभ में गुरु का स्मरण ध्यान मात्र ही कार्य में सफलता देता है।

व्यवहार में कई बार ऐसा देखा गया कि व्यक्ति जोश जोश में अति उत्साहित होता हुआ भावना वश या आपस की होडवश किसी को गुरु तो बना लेता है। थोड़े दिन वह उसे भगवान की तरह पूजेगा और कुछ दिनों बाद वह शनैः शनैः दूर हो जाएगा।

अपने द्वारा बनाए गुरु को अन्य के गुरूओं से छोटा मान वह भावावेश में कहने लग जाएगा कि मुझसे भूल हो गई यह गुरु बनाने लायक ही नहीं हैं।

मेरा गुरु तो गुरु बनाने योग्य भी नहीं है। मेरा गुरु कम सिद्ध हैं। मेरे गुरु के आशीर्वाद से मेरे कोई काम हल नहीं हो पाए। मेरा गुरु तो लोभी व स्वार्थी है। गुरु तो कुछ विशेष लोगों पर ही ध्यान देता है जो रूप वाले हैं, धन वाले हैं, या प्रतिष्ठा वाले। तरह-तरह के अलंकारणों से वह गुरूओ को लाद देता है।

कई बार छोटे गुरूओं को छोड़ बडे़ गुरुओं की शरण में जाता है तथा बड़े गुरु को छोटे गुरु की जी जान से बुराई कर बडे़ गुरु को भगवान से भी बड़ा बना देता है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से एेसा कुछ भी नहीं है, यदि आपने मिट्टी का गुरु भी बना लिया तो भी वह शक्तिशाली हो जाता है। क्योंकि गुरु नाम में ही शक्ति होती हैं। किसी भी गुरूओं की निंदा पतन का मार्गी बना देती हैं, फिर तुम साक्षात भगवान की ही शरण में क्यों ना करो।

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